Monday, October 19, 2015

'इंतज़ार'

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पूरे चाँद की उस रात 
रात कुछ सहमी सी,
ठिठूरते हुए चाँद की 
काँपती हुई ...
ज़ुल्फ़ों से रिसता पानी
दिल कर रहा था ,
चुम लूँ उन बूँदों को
हलके से ...
रोक दूँ हवाओं के झोंके
महसूस कर लूँ
शर्मीली, झुकी निगाहों को
छू लूँ एक बार 
फ़िज़ाओं में बिखरी हुई
उन नर्म मुस्कराहटों को
कई बार चाहा 
घास के पत्तों पे उलझी
ओस की नर्म बूँदों से पूछूँ..,
उन गर्म साँसों का पता !
नहीं पूछ पाया...
सवाल उलझे रहें 
मेरी खामोश तनहाईयों में
चाँद भी तो ..
सदियों से खामोश है 
जानता तो वो भी है मुझको
...
...
पर शायद ...
उसे भी 'इंतज़ार' है !

विशाल

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