Tuesday, December 10, 2019

शहर ...

शहर...

आजकल यूँ ही
सुलगता रहता हैं
अंदर ही अंदर ...
उबलता रहता हैं
ये शहर न जाने अपने अंदर
कौन सा ज्वार समेटे रहता हैं?

ख़ामोशी का
पैराहन ओढें
अंदर ही अंदर
सिसकता रहता हैं
अनगिनत बस्तियाँ अलाव की
खुद में ही संजोये रहता है

ये शहर बड़ा
बेतरतीब है
यहाँ अखबारों में
गर्म लहु भी बहता है
इन्सान यहाँ पर मुर्दा और
शमशानों में जमघट लगता है

चारो तरफ छाये
उदासियोंके गहरे साये
हर निगाह में शक
नफरत से भरे गलियारे
कोहरे की चादर ओढे
ये शहर बेगाना लगता हैं

© विशाल कुलकर्णी

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