Wednesday, April 27, 2022
हायकू - १
पंख छाटले
उडे आभाळी पक्षी
मनोवेगाने!
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मुक्त पाखरु
निरोप द्याया येती
अतृप्त कोणी!
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रात्र सरली
अंधार उजळला
स्वप्न संपले!
विशाल ...
स्थिर
चालले रे आयुष्य पुढे, जग बोलले हसुनी
तू थांबला कसा रे, होता तिथेच अजुनी ?
ना खंत मला याची, की होतो तिथेच आहे
वटवृक्ष मी चिरंतन, मी आकाशा स्पर्शू पाहे
तिष्ठतो युगानुयुगे, मी पांथस्था देतो छाया
शांत होतसे दाह जगाचा, शितल हो काया
हा अंत नसे मित्रा, जाहलो आहे स्थिर इथे
हा विराम नाही, हो प्रारंभ नव्या युगाचा इथे
जग जगते स्वांत-सुखास्तव जात राहते पुढे
हात द्यावया मदतीचा, पाऊल माझे सदा पुढे
विशाल उवाच...
वो आयेगी ... जरूर !
पश्चिम की तरफसे आती
गर्म हवा की नर्म थपेड़े
बार-बार बंद खिड़कियों पर
दस्तक देती रही...
जैसे पूछती हों,
वो आयी ... ,? के नहीं ?
खिडकीसे सटी मेज के किनारे
मैं चुपचाप बैठा रहा...
बैठा रहा !
कुछ कह न सका तो
यूँ ही बडबडाता रहा...
जैसे खुदही को आश्वस्त करता रहा
वो आयेगी... आयेगी वो !
आयेगी, आज नही तो कल
मिट्टी की वो सौंधी सी खुशबू
पंछी फिरसे गायेंगे
तराने खुशियों भरे
व्याकुल हो उठेगी धरा
मिलन को गगनके
और पुकारेगी बांछे खोलके
नदिया सुखी हुई..
गाने लगेंगे झरने, धरती की..
व्याकुलता संजोकर
वो आयेगी जरूर..!
फिर निकलूंगा मैं भी...
अपना छाता लेकर
वो मुझपे हँसेगी और...
मैं छुपा लूंगा
अपना छाता किसी तरह,
हँसते हँसते बरसने लगेंगे मोती
उसकी बूंदों को छूकर, अपने भिगे हुए
बालोंको संभालता हूवा
मैं भी हँस दूंगा खुद पर
फिर कहूँगा उन हवाओं से
देखो...
वो आ गयी !
© विशाल कुलकर्णी