Thursday, December 22, 2016

चाय की प्याली ...


ठिठुरती हुयी धुप ...
कोहरे की चादर ओढ़े,
घंटों हमसे बाते करती रहीं !
कुछ शिकवे, कुछ शिकायत
सर्दी के आलम को कोसती रही !

अतीत की नर्म यादोंके,
गर्म अलावपें हात सेकते हुए..
हम मुस्कराते रहें..., यूँही !

आँखों के सामने मंडराते रहें
हवाओं से अटखेलियां करते,
लहलहाते बाजरे के खेत
बाजरे के भूट्टोसे जुझते,
चहचहाते चिड़ियोंके झुण्ड
सर्दी की चादर ओढ़े हुए,
खेतों की नहरोमे बहता पानी !

चूल्हे के ऊपर रक्खे बर्तनसे आती,
अम्माके हाथकी बनी ...
बगैर दुध के चाय की भिनी सी खुशबू !

'बाबूजी चाय ले लो , गरमागरम अद्रक मारके'
ठेलेवाले छोकरेने प्यारसे..
हाथ में चाय की प्याली थमायी,
हंसकर बोला...
"कहाँ खो गए थे साब? कबसे पुकार रहा हूँ!"
हम बस मुसकुरा दिए... यूँही
आँखे ढूंढती रही ....
शहरकी भीडभाडमें खोएं हुए
लहलहाते वे बाजारें के खेत ,
और ढूंढते रहें..
उस चाय की प्यालीमें अम्माके हाथोंकी खुशबू !

© विशाल कुलकर्णी (२३-१२-२०१४)

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