Thursday, February 8, 2018
ओस की बूंदे
वो लहराते हुए जंगल..
वो अपनी ही धुन में,
गाते, किलकिलाते पंछी,
वो हँसते खेलते पेडों के साये !
वो खिलखिलाती ...
झूमती नदियाँ के किनारे ,
हाँ ...,
नदियाँ के किनारे...
सदियोसे खडे ,
बरगद की जटाओं से लिपटी,
घास किं पत्तीयों से
खेलती, अटखेलिया करती
मासूम ओस की अल्हड़ बूंदे ।
कभी की हैं बाते,
ओस की नर्म बूंदों से?
बड़ी शरीर होती है
ये ओस कि बूंदे ...
छूने जाओ तो यूं फिसलती है
जैसे किसी शोख की बदमाश नजरे
दिमाग कहता है ... दूर रह
कंबख्त दिल हैं
के मानता हीं नहीं।
फिर सरसराती हवा का एक झोका,
ओस की बूंदो को...
जकड़ कर रखने की ...
घास की पत्तीयों की वो भरसक कोशिशें
और फिर अमूमन...
उनका जान जाना ,
कीं, ओस की बूंदे कभी हात नहीं आती !
© विशाल कुलकर्णी
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